12-11-92  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

भविष्य विश्व-राज्य का आधार-संगमयुग का स्वराज्य

विश्व-रचता बापदादा अपने स्वराज्य अधिकारी बच्चों प्रति बोले -

आज विश्व-रचता बापदादा अपने सर्व स्वराज्य अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। इस वर्तमान संगमयुग के स्वराज्य अधिकारी और भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो। क्योंकि स्वराज्य से ही विश्व के राज्य का अधिकार प्राप्त करते हो। इस समय के स्वराज्य की प्राप्ति का अनुभव भविष्य विश्व के राज्य से भी अति श्रेष्ठ अनुभव है! सारे ड्रामा के अन्दर राज्य-अधिकारी राज्य करते आते हैं। सबसे श्रेष्ठ पहला है स्वराज्य, जिसके आधार से आप स्वराज्य अधिकारी आत्माए अनेक जन्म सतयुग-त्रेता तक विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो। तो पहला है स्वराज्य, फिर आधा कल्प है विश्व-राज्य अधिकार और द्वापर से लेकर के, राज्य तो होता ही है लेकिन विश्व-राज्य नहीं, स्टेट के राजायें बनते हैं। सारे विश्व पर एक राज्य, वह सिर्फ सतयुग में ही होता है। तो तीन प्रकार के राज्य सुनाये। राज्य अर्थात् सर्व अधिकार की प्राप्ति। सतयुग-त्रेता की राजनीति, द्वापर की राजनीति और संगमयुग की स्वराज्य नीति-तीनों को अच्छी रीति से जानते हो।

संगमयुग की राजनीति अर्थात् हर एक ब्राह्मण आत्मा स्व का राज्य अधिकारी बनता है। हर एक राजयोगी है। सभी राजयोगी हो। या प्रजायोगी हो? राजयोगी हो ना। तो राजयोगी अर्थात् राजा बनने वाले योगी। स्वराज्य अधिकारी आत्माओं की विशेष नीति है-जैसे राजा अपने सेवा के साथियों को, प्रजा को जैसा, जो ऑर्डर करते हैं, उस ऑर्डर से, उसी नीति प्रमाण साथी वा प्रजा कार्य करते हैं। ऐसे आप स्वराज्य अधिकारी आत्माए अपनी योग की शक्ति द्वारा हर कर्मेन्द्रिय को जैसा ऑर्डर करती हो, वैसे हर कर्मेन्द्रिय आपके ऑर्डर के अन्दर चलती है। न सिर्फ यह स्थूल शरीर की सर्व कर्मेन्द्रियां लेकिन मन, बुद्धि, संस्कार भी आप राज्य-अधिकारी आत्मा के डायरेक्शन प्रमाण चलते हैं। जब चाहो, जैसे चाहो-वैसे मन अर्थात् संकल्प शक्ति को वहाँ स्थित कर सकते हो। अर्थात् मन, बुद्धि, संस्कार के भी राज्य-अधिकारी। संस्कारों के वश नहीं लेकिन संस्कार को अपने वश में कर श्रेष्ठ नीति से कार्य में लगाते हो, श्रेष्ठ संस्कार प्रमाण सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हो। तो स्वराज्य की नीति है-मन, बुद्धि, संस्कार और सर्व कर्मे-न्द्रियों के ऊपर स्व अर्थात् आत्मा का अधिकार। अगर कोई कर्मेन्द्रियां-कभी आंख धोखा देती, कभी बोल धोखा देता, वाणी अर्थात् मुख धोखा देता, संस्कार अपने कन्ट्रोल में नहीं रहते-तो उसको स्वराज्य अधिकारी नहीं कहेंगे, उसको कहेंगे-स्वराज्य अधिकार के पुरुषार्थी। अधिकारी नहीं लेकिन पुरुषार्थी। वास्तव में राज्य-अधिकारी आत्मा को स्वप्न में भी कोई कर्मेन्द्रिय वा मन, बुद्धि, संस्कार धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि अधिकारी हैं, अधिकारी कभी अधीन नहीं हो सकता। अधीन हैं तो अधिकारी बनने के पुरुषार्थी हैं। तो अपने से पूछो-पुरुषार्थी हो या अधिकारी हो? अधिकारी बन गये या बन रहे हैं? तो स्वराज्य का रूहानी नशा क्या अनुभव कराता है? क्या बन जाते हो? बेफिक्र बादशाह, बेगमपुर के बादशाह!

सबसे बड़े ते बड़ा बादशाह है बेफिक्र बादशाह और सबसे बड़े ते बड़ा राज्य है बेगम्पुर का राज्य। बेगमपुर के राज्य अधिकारी के आगे यह विश्व का राज्य भी कुछ नहीं है। यह बेगमपुर के राज्य का अधिकार अति श्रेष्ठ और सुखमय है। है ही बे-गम। तो बेगमपुर का अनुभव है ना। या कभी-कभी नीचे आ जाते हो? सदा रूहानी नशे में बे॰गमपुर के बादशाह हैं-इस अधिकार में रहो। नीचे नहीं आओ। देखो, आजकल के राज्य में भी अगर कोई कुर्सी पर है तो उसका अधिकार है और कल कुर्सी से उतर आता तो उसका अधिकार रहता है? साधारण बन जाता है। तो आप भी स्वराज्य के नशे में रहते हो, अकाल तख्तनशीन रहते हो। सभी के पास तख्त है ना। तो तख्त को छोड़ते क्यों हो? सदा तख्तनशीन रहो, रूहानी नशे में रहो। अकालतख्त-वह अमृतसर वाला अकाल-तख्त नहीं, यह अकालतख्त। यह अकालतख्त सभी के पास है। तो अकाल तख्तनशीन स्वराज्य अधिकारी किसने बनाया? बाप ने हर ब्राह्मण बच्चे को तख्तनशीन राजा बना दिया है।

सारे सृष्टि-चक्र के अन्दर ऐसा कोई बाप होगा जिसके अनेक सब राजा बच्चे हों! लक्ष्मी-नारायण भी ऐसा नहीं बन सकते। यह परमात्म-बाप ही कहते हैं कि मेरे सभी बच्चे, राजा बच्चे हैं। वैसे दुनिया में कह देते हैं-यह राजा बच्चा है। लेकिन बने कुछ भी-सर्वेन्ट बने या कुछ भी बने। लेकिन कहने में आता है राजा बेटा। लेकिन इस समय आप प्रैक्टिकल में राजयोगी अर्थात् राजे बच्चे बनते हो। तो बाप को भी नशा है और बच्चों को भी नशा है। तो स्वराज्य की नीति क्या रही? स्व पर राज्य, हर कर्मेन्द्रिय के ऊपर अधिकार हो। ऐसे नहीं कि देखने तो नहीं चाहते थे लेकिन देख लिया। आंखें खुली थीं ना, इसलिए देखने में आ गया। कान को दरवाजा नहीं है, इसलिए कान में बात पड़ गई। लेकिन दो कान हैं। अगर ऐसी बात सुन भी ली तो निकालने का भी रास्ता है। इसलिए इस भारत में ही विशेष यह चित्र बापू की याद में बना हुआ है-बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो। यह तीन दिखाते हैं, आप चार दिखाते हो। बुरा सोचो भी नहीं। क्योंकि पहले सोचना होता, फिर बोलना होता, फिर देखना होता है। तो इसलिए कन्ट्रो-लिंग पॉवर, रूलिंग पॉवर रखो। राजा अर्थात् रूलिंग पॉवर। राजा हो और रूलिंग पॉवर हो ही नहीं, तो कौन राजा मानेगा। तो स्वराज्य अर्थात् रूलिंग पॉवर, कन्ट्रोलिंग पॉवर।

बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि कई बच्चे परखने में बहुत होशियार होते हैं। कोई भी गलती होती है, जो नीति प्रमाण नहीं है, तो समझते हैं कि यह नहीं करना चाहिए, यह सत्य नहीं है, यथार्थ नहीं है, अयथार्थ है, व्यर्थ है। लेकिन समझते हुए फिर भी करते रहते या कर लेते। तो इसको क्या कहेंगे? कौनसी पॉवर की कमी है? कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं। जैसे-आजकल कार चलाते हैं, देख भी रहे हैं कि एक्सीडेन्ट होने की सम्भावना है, ब्रेक लगाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ब्रेक लगे ही नहीं तो जरूर एक्सीडेन्ट होगा ना। ब्रेक है लेकिन पॉवरफुल नहीं है और यहाँ के बजाए वहाँ लग गई, तो भी क्या होगा? इतना समय तो परवश होगा ना। चाहते हुए भी कर नहीं पाते। ब्रेक लगा नहीं सकते या ब्रेक पॉवरफुल न होने के कारण ठीक लग नहीं सकती। तो यह चेक करो। जब ऊंची पहाड़ी पर चढ़ते हैं तो क्या लिखा हुआ होता है? ब्रेक चेक करो। क्योंकि ब्रेक सेफ्टी का साधन है। तो कन्ट्रोलिंग पॉवर का वा ब्रेक लगाने का अर्थ यह नहीं कि लगाओ यहाँ और ब्रेक लगे वहाँ। कोई व्यर्थ को कन्ट्रोल करने चाहते हैं, समझते हैं-यह रांग है। तो उसी समय रांग को राइट में परिवर्तन होना चाहिए। इसको कहा जाता है कन्ट्रोलिंग पॉवर। ऐसे नहीं कि सोच भी रहे हैं लेकिन आधा घण्टा व्यर्थ चला जाये, पीछे कन्ट्रोल में आये। बहुत पुरूषार्थ करके आधे घण्टे के बाद परिवर्तन हुआ तो उसको कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं, रूलिंग पॉवर नहीं कहा जाता। यह हुआ थोड़ा-थोड़ा अधीन और थोड़ा-थोड़ा अधिकारी-मिक्स। तो उसको राज्य-अधिकारी कहेंगे या पुरुषार्थी कहेंगे? तो अब पुरुषार्थी नहीं, राज्य-अधिकारी बनो। यह स्वराज्य अधिकार का श्रेष्ठ मज़ा है।

स्वराज्य अधिकारी अर्थात् सदा मौज ही मौज में रहना। मौज में रहने वाला कभी किसी बात में मूँझता नहीं है। अगर मूंझते हैं तो मौज नहीं है। तो संगमयुग पर मौज ही मौज है ना। या कभी-कभी मौज है? शक्तियों को, पाण्डवों को मौज है ना। तो समझा, स्वराज्य की नीति क्या है और विश्व-राज्य की नीति क्या है? चाहे प्रजा है, चाहे रॉयल फैमिली है लेकिन प्रजा, प्रजा नहीं, प्रजा भी एक परिवार है। परिवार की नीति-यह है सतयुग-त्रेता की राजनीति। राजा कहलाते हैं लेकिन राजा होते भी परमप्रिय पिता का स्वरूप है। परिवार की विधि से राजनीति चलती है। चाहे राज्य कारोबार भिन्न-भिन्न हाथों में होगी लेकिन परिवार के स्नेह की विधि से कारोबार होगी। ऐसे नहीं कि राजा के पास बहुत धन-दौलत हो और प्रजा में कोई को खाने-पीने के लिये भी नहीं हो। द्वापर-कलियुग की राजनीति में लॉ एण्ड ऑर्डर चलता है। लेकिन विश्व-राज्य, देव-राज्य के समय यही नीति चलती है, लॉ नहीं लेकिन स्नेह और सम्बन्ध की नीति चलती है। कोई भी आत्मा ‘दु:ख’ शब्द को भी नहीं जानती। चाहे राजा हो, चाहे प्रजा हो लेकिन दु:ख-अशान्ति का नाम-निशान नहीं। दु:ख क्या चीज होती है-उसका अज्ञान है, ज्ञान ही नहीं है। जैसे इस समय स्वराज्य के समय भी आपको बापदादा किस नीति से चलाते हैं? स्नेह और श्रीमत। श्रीमत पर चलते रहते तो कोई भी सख्त ऑर्डर करने की आवश्यकता नहीं है। अगर नीति को भूलते हैं तो स्वयं, स्वयं को कलियुगी नीति में चलाते हैं। तो विश्व के राज्य की नीति भी बहुत प्यारी है। क्योंकि अनेकता नहीं है, एक राज्य है और अखुट खज़ाना है! प्रजा भी इतनी सम्पन्न होगी-आजकल के जो बड़े-बड़े पद्मपति हैं, उन्हों से भी ज्यादा! अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं। लेकिन इसका आधार क्या? स्वराज्य।

इस समय सम्पन्न बनते हो, इसलिए परमात्म-सम्पत्ति की सम्पन्नता सतयुग-त्रेता के अनेक जन्म प्राप्त होती है। इसलिए कहा-नम्बरवन राज्य है स्वराज्य, फिर है विश्व-राज्य और तीसरा है द्वापर-कलियुग का अलग-अलग स्टेट का राज्य। इस राज्य को तो अच्छी तरह जानते ही हो, वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। तो सदा किस नशे में रहना है? स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है! किस जन्म का? ब्राह्मण जन्म का। ब्रह्मा बाप ने जन्मते ही स्वराज्य का तिलक हर ब्राह्मण आत्मा को लगाया। तिल-कधारी हो ना। तिलक है स्मृति का। तिलक भी है, तख्त भी है और ताज भी है। ताजधारी हो ना। कौनसा ताज है? विश्व-कल्याण का ताज। विश्व-कल्याणकारी हो ना। प्योरिटी का ताज और विश्व-कल्याण का ताज-डबल ताज है। प्योरिटी का ताज है-लाइट का ताज और विश्व-कल्याण का ताज है-सेवा का ताज।

विश्व-सेवाधारी हो ना। ऐसे नहीं कि स्टेट के सेवाधारी समझो-हम गुजरात के हैं, हम राजस्थान के हैं, हम दिल्ली के सेवाधारी हैं। नहीं। विश्व-सेवाधारी। कहाँ भी रहते हैं लेकिन वृत्ति और दृष्टि बेहद की। अगर विश्व-सेवाधारी नहीं बनेंगे तो न स्वराज्य, न विश्व-राज्य, फिर द्वापर-कलियुग में स्टेट का राजा बनना पड़ेगा। लेकिन विश्व-राज्य अधिकारी के लिए सदा अपना ताज, तिलक और तख्त-सदा इस पर स्थित रहो। शरीर से तख्त पर नहीं बैठना है लेकिन बुद्धि द्वारा स्मृति की स्थिति से स्थित रहना है। स्थिति में स्थित होना-यही तख्त पर बैठना है, जो सदैव बैठ सकते हैं। शरीर से तो कितने घण्टे बैठेंगे? थक जायेंगे ना। लेकिन बुद्धि द्वारा स्थिति में स्थित रहना-यह है तख्तनशीन होना। यह तो सहज है ना। तो स्वराज्य के नशे में निरन्तर स्थित रहो। समझा, क्या करना है? पुरुषार्थी नहीं लेकिन अधिकारी बनना।

सभी ने मिलन मनाया ना। सभी भाग-भाग कर आते हैं परमात्म-मिलन का मेला मनाने के लिए। तो मिलन के मेले में आये हो ना। यह मेला लगता है या भीड़ लगती है? आराम है ना। आराम से रहना, खाना, चलना-सब आराम से है ना। फिर भी बहुत लक्की हो। उन मेलों के माफिक मिट्टी में तो नहीं रहे हुए हो। फिर भी बिस्तरा और खटिया तो मिली हुई है ना। वहाँ मेले में तो नहाओ तो भी मिट्टी, रहो तो भी मिट्टी और खाओ तो भी मिट्टी साथ में आयेगी। यहाँ बच्चे आते हैं अपने घर में। नशे से आते हो। बाप भी खुश और बच्चे भी खुश। हाल में पीछे बैठने वाले सबसे आगे हो। क्योंकि बापदादा की पहली नज़र लास्ट तक जाती है। अच्छा!

सर्व स्वराज्य-अधिकारी बेफिक्र बादशाह बच्चों को, सर्व विश्व-राज्य अधिकारी अनेक जन्म सम्पूर्ण सम्पन्न रहने वाली आत्माओं को, सदा तिलक, ताज और तख्तनशीन अधिकारी बच्चों को, सदा बेहद की सेवा के उमंग-उत्साह में रहने वाले विशेष बच्चों को, देश-विदेश के सर्व सम्मुख अनुभव करने वाले बच्चों को बापदादा का पद्मगुणा याद, प्यार। साथ-साथ सर्व के स्नेह के पत्रों का भी रेसपान्ड दे रहे हैं। विदेश और देश-दोनों अपने-अपने विधि प्रमाण स्व के पुरूषार्थ में सिद्धि को प्राप्त कर रहे हैं और सेवा में भी सदा आगे बढ़ने के उत्साह में लगे हुए हैं। इसलिए हर एक किसी भी कोने में रहने वाले हों लेकिन उन्हों की याद, सेवा-समाचार, प्यार के पत्र, स्थिति के उमंग-उत्साह का समाचार-सब प्राप्त हुआ और बापदादा सभी बच्चों को बहुत-बहुत-बहुत नाम सहित, हर एक की विशेषता सहित याद, प्यार दे रहे हैं और सदा इसी याद, प्यार की पालना से पल रहे हो, उड़ रहे हो और उड़ते-उड़ते मंजिल पर पहुँचना ही है वा यह कहें कि पहुँचे हुए ही हो। तो याद, प्यार और नमस्ते।

राजस्थान के राज्यपाल डॉ.एम.चन्ना रेड्डीजी से मुलाकात

संगमयुग के स्वराज्य-अधिकारी हो ना। स्वराज्य मिला ना। अच्छा, अपने ईश्वरीय परिवार का स्नेह प्रैक्टिकल में देखा। यह ईश्वरीय परिवार के प्यार का अधिकार किस विशेषता से प्राप्त किया? (बाबा के आशीर्वाद से)। लेकिन आपकी भी एक विशेषता है, जिस विशेषता के कारण समीप आ सके। (भक्ति) भक्ति भी है, और शक्ति भी है। आदि से अब तक जीवन में आगे बढ़ने का आधार जो है, वो है आपकी हिम्मत। गाया हुआ है-’’हिम्मते बच्चे मददे बाप’’। तो हर क्षेत्र में हिम्मत ने आपको सहारा दिया है, इसलिए हिम्मत के कारण बेफिक्र होकर आगे बढ़े हो। तो इसी विशेषता को सदा साथ रखना। सदा अमृतवेले जब आंख खुले तो अपने को तीन बिन्दियों का तिलक लगाना - (1) मैं आत्मा बिन्दु हूँ, (2) बाप भी बिन्दु है और (3) जो ड्रामा में हो गया, बीत चुका उसका फुलस्टॉप लगाना। तो यह तीन बिन्दियों का तिलक सदा ही राज्य-तिलक का अधिकारी बनायेगा। अभी स्वराज्य फिर विश्व का राज्य। भक्ति का फल तो मिलता है ना। भक्ति का फल है सहज मिलन। (युगल से) बच्ची भी अच्छी मौज में रहती है। मौज ही मौज है ना। (आपका आशीर्वाद चाहिए) सारा दिन सिर्फ एक शब्द याद रखो, वो है-’’मेरा बाबा’’। तो ‘मेरा’ कहने से अधिकार हो जायेगा। तो आशीर्वाद का अधिकार स्वत: ही प्राप्त होगा। यह तो सहज है ना। कोई भी कार्य करो लेकिन यह याद रखो कि ‘मेरा बाबा’ और बाबा का यह कार्य कर रही हूँ। ट्रस्टी होकर कार्य करो। तो ट्रस्टी को कभी कोई बोझ नहीं होता है। न बोझ होगा, न भूलेंगे। फिर भी भक्ति में याद तो किया है ना। याद का रिटर्न है-मौज में रहना। (कृष्ण की भक्त है) तो कृष्ण के राज्य में चलना है ना। तो अभी चलेंगी? ये सब आपको लेकर ही जायेंगे, कोई छोड़कर नहीं जायेंगे। फिर भी दोनों के अच्छे विचार हैं। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

स्व-स्थिति को ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो परिस्थिति कभी नीचे-ऊपर न कर सके

सदा अपने भाग्य के चमकते हुए सितारे को देखते रहते हो? भाग्य का सितारा कितना श्रेष्ठ चमक रहा है! सदा अपने भाग्य के गीत गाते रहते हो? क्या गीत है? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! यह गीत सदा बजता रहता है? आटोमेटिक है या मेहनत करनी पड़ती है? आटोमेटिक है ना। क्योंकि भाग्यविधाता बाप अपना बन गया। तो जब भाग्यविधाता के बच्चे बन गये, तो इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! बस यही स्मृति सदा रहे कि भाग्यविधाता के बच्चे हैं। दुनिया वाले तो अपने भाग्य का वरदान लेने के लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं और आप सभी को घर बैठे भाग्य का खज़ाना मिल गया। मेहनत करने से छूट गये ना। तो मेहनत भी नहीं और प्राप्ति भी ज्यादा। इसको ही भाग्य कहा जाता है-जो बिना मेहनत के प्राप्त हो जाये। एक जन्म में 21 जन्म की प्राप्ति करना-यह कितना श्रेष्ठ हुआ! और प्राप्ति भी अविनाशी और अखण्ड है, कोई खण्डित नहीं कर सकता। माया भी सरेन्डर हो जाती है, इसलिए अखण्ड रहता है। कोई लड़ाई करके विजय प्राप्त करना चाहे तो कर सकेगा? किसकी ताकत नहीं है। ऐसा अटल-अखण्ड भाग्य पा लिया! स्थिति भी अभी ऐसी अटल बनाओ। कैसी भी परिस्थिति आये लेकिन अपनी स्थिति को नीचे-ऊपर नहीं करो। अविनाशी बाप है, अविनाशी प्राप्तियां हैं। तो स्थिति भी क्या रहनी चाहिए? अविनाशी चाहिए ना। सभी निर्विघ्न हो? कि थोड़ा-थोड़ा विघ्न आता है? विघ्न-विनाशक गाये हुए हो ना। कैसा भी विघ्न आये, याद रखो-मैं विघ्न-विनाशक आत्मा हूँ। अपना यह टाइटल सदा याद है? जब मास्टर सर्वशक्तिवान हैं, तो मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे कितना भी बड़ा कुछ भी नहीं है। जब कुछ है ही नहीं तो उसका प्रभाव क्या पड़ेगा?

ग्रुप नं. 2

सदा खुश रहने के लिये ‘अनेक’ मेरे को ‘एक’ मेरे में परिवर्तन करो

सभी सदा खुश रहते हो? सदा खुश रहने का सहज पुरूषार्थ कौन सा है? (याद) याद में भी क्या याद रखना सहज है? मेरापन सहज कर देता है। मेरापन होता है तो मेरा सहज याद आता है। तो मेरे के अधिकार से याद करना-ये है सहज विधि। अगर खुशी कम होती है तो उसका कारण ही है कि मेरे के अधिकार से बाप को याद नहीं किया। क्योंकि याद में जो विघ्न डालता है वो है ही मेरा-पन। मेरा शरीर, मेरा सम्बन्ध-यही मेरापन विघ्न डालता है। इसलिए इस ‘अनेक मेरे-मेरे’ को ‘एक मेरा बाबा’ में बदल दो। यही सहज विधि है। क्योंकि जीवन में सबसे बड़े ते बडी प्राप्ति है ही खुशी। अगर खुशी नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। ब्राह्मण जीवन का श्वांस है खुशी। इसलिए सदा खुश रहो। बाप मिला अर्थात् सबकुछ मिला। खुशी गायब तब होती है जब कोई अप्राप्ति होती है। तो ब्राह्मण अर्थात् सबकुछ मिला। प्राप्ति की निशानी है खुशी। खुश रहने वाले भी हो और खुशी बांटने वाले भी। बांटेगा कौन? जिसके पास स्टॉक होगा। अपने लिए तो स्टॉक है लेकिन दूसरे के लिए इतना ही स्टॉक जमा हो। तो सदैव अपना स्टॉक चेक करो कि इतना भरपूर है? ऐसे तो नहीं कि अन्दर ही अन्दर से स्टॉक माया खत्म कर ले और आप समझते रहें कि अभी स्टॉक है! जब कोई परिस्थिति आती है तो कहते हैं कि पता नहीं मेरी खुशी कहाँ चली गई? क्यों चली गई? अन्दर ही अन्दर स्टॉक खत्म हो गया। तो सदैव ही अपना स्टॉक चेक करो कि भरपूर है? क्योंकि माया को भी ब्राह्मण आत्माए प्रिय लगती हैं। वो भी अपना बनाने का पुरूषार्थ नहीं छोड़ती। इसलिए हर समय खबरदार, होशियार!

ग्रुप नं. 3

ब्रह्मा बाप के संस्कारों को अपना संस्कार बनाना ही फॉलो फादर करना है

सदा अपने को विश्व-परिवर्तक अनुभव करते हो? विश्व-परिवर्तन करने की विधि क्या है? स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन। बहुत-काल के स्व-परिवर्तन के आधार से ही बहुतकाल का राज्य-अधिकार मिलेगा। स्व-परिवर्तन बहुतकाल का चाहिए। अगर अन्त में स्व-परिवर्तन होगा तो विश्व-परिवर्तन के निमित्त भी अन्त में बनेंगे, फिर राज्य भी अन्त में मिलेगा। तो अन्त में राज्य लेना है कि शुरू से लेना है? अच्छा, लेना शुरू से है और करना अन्त में है? अगर लेना बहुतकाल का है तो स्व-परिवर्तन भी बहुतकाल का चाहिए। क्योंकि संस्कार बनता है ना। तो बहुतकाल का संस्कार न चाहते हुए भी अपनी तरफ खींचता है। जैसे अभी भी कहते हो कि मेरा यह पुराना संस्कार है ना, इसीलिए न चाहते भी हो जाता है। तो वह खींचता है ना। तो यह भी बहुत समय का पक्का पुरू-षार्थ नहीं होगा, कच्चा होगा, तो कच्चा पुरूषार्थ भी अपनी तरफ खींच्ोगा और रिजल्ट क्या होगी? फुल पास नहीं हो सकेंगे ना। इस-लिए अभी से स्व-परिवर्तन के संस्कार बनाओ। नेचुरल संस्कार बन जाये। जो नेचुरल संस्कार होते हैं उनके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती।

स्व-परिवर्तन का विशेष संस्कार क्या है? जो ब्रह्मा बाप के संस्कार वो बच्चों के संस्कार। तो ब्रह्मा बाप ने अपना संस्कार क्या बनाया, जो साकार शरीर के अन्त में भी याद दिलाया? निराकारी, निर्विकारी, निरअहंकारी-ये हैं ब्रह्मा बाप के अर्थात् ब्राह्मणों के संस्कार। तो ये संस्कार नेचुरल हों। निराकार तो हो ही ना, ये तो निजी स्वरूप है ना। और कितने बार निर्विकारी बने हो! अनेक बार बने हो ना। ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही है निरहंकारी। तो ये ब्रह्मा के संस्कार अपने में देखो कि सचमुच ये संस्कार बने हैं? ऐसे नहीं-ये ब्रह्मा के संस्कार हैं, ये मेरे संस्कार हैं। फॉलो फादर है ना। पूरा फॉलो करना है ना। तो सदा ये श्रेष्ठ संस्कार सामने रखो। सारे दिन में जो भी कर्म करते हो, तो हर कर्म के समय चेक करो कि तीनों ही संस्कार इमर्ज रूप में हैं? तो बहुत समय के संस्कार सहज बन जायेंगे। यही लक्ष्य है ना! पूरा बनना है तो जल्दी-जल्दी बनो ना। समय आने पर नहीं बनना है, समय के पहले अपने को सम्पन्न बनाना है। समय रचना है और आप मास्टर रचयिता हैं। रचता शक्तिशाली होता है या रचना? तो अभी पूरा ही स्व-परिवर्तन करो। ब्राह्मणों की डिक्शनरी में कब-कब नहीं है। अब। तो ऐसे पक्के ब्राह्मण हो ना।

ग्रुप नं. 4

सफलता का आधार है - दिव्यता

बापदादा द्वारा हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान मिला है। यह दिव्य बुद्धि का वरदान सभी ने अपने जीवन में कार्य में लगाया है? क्योंकि वरदान का लाभ तब होता है जब वरदान को कार्य में लगायें। तो दिव्य बुद्धि का वरदान मिला सबको है लेकिन यूज़ कितना करते हो? कोई भी चीज यूज करने से, कार्य में लगाने से बढ़ती भी है और उसको सुख की, खुशी की अनुभूति भी होती है। तो दिव्य बुद्धि को कार्य में कहाँ तक लगाते हैं, उसकी निशानी क्या होगी? सफलता होगी। हर कार्य दिव्य-अलौकिक अनुभव होगा, साधारण नहीं। क्योंकि कार्य में दिव्यता ही सफलता का आधार है। तो दिव्य बुद्धि की निशानी है-हर कर्म में दिव्यता। तो ऐसे अनुभव करते हो? या कभी साधारण कर्म भी हो जाते हैं?

दिव्य बुद्धि प्राप्त करने वाली आत्मायें सदा अदिव्य को भी दिव्य बना देती हैं। जैसे गाया जाता है कि पारस अगर लोहे को लगता है तो वह भी पारस बन जाता है। तो दिव्य बुद्धि अर्थात् पारस बुद्धि। ऐसे बने हो? क्योंकि बुद्धि हर बात को ग्रहण करती है। दिव्य बुद्धि दिव्यता को ही ग्रहण करेगी। ऐसे परिवर्तन कर सकते हो। अदिव्य को दिव्य बना सकते हो। या अदिव्यता का प्रभाव पड़ जायेगा? कोई अदिव्य बात हो जाये, अदिव्य कार्य हो जाये-उसका प्रभाव आपके ऊपर पड़ेगा? दिव्य बुद्धि के वरदान से परिवर्तन-शक्ति अदिव्य को भी दिव्य के रूप में बदल देगी। अदिव्य वातावरण या अदिव्य चलन, बोल दिव्य बुद्धि के ऊपर असर नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति वाले को ही दिव्य बुद्धि वरदानी मूर्त कहा जायेगा। जैसे-वाटर-प्रूफ होता है, आग-प्रूफ होता है। साइन्स के साधन वाटर-प्रूफ बना देते हैं, आग-प्रूफ बना सकते हैं। तो साइलेन्स की शक्ति परिवर्तन नहीं कर सकती है, प्रूफ नहीं बना सकते हैं? नॉलेज रखना और चीज है-यह दिव्य है, यह अदिव्य है। लेकिन प्रभाव में आना और चीज है। दिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है या अदिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है? तो दिव्यता का प्रभाव अदिव्यता पर पड़ना चाहिए ना। तो अभी दिव्य बुद्धि के वरदान को कार्य में लगाओ। लगाना तो आता है या कभी भूल जाते हो? आधा कल्प भूलने वाले बने लेकिन अभी अभूल बनना है।

दिव्य बुद्धि ऐसा श्रेष्ठ यन्त्र है जो इस यन्त्र द्वारा व्यक्ति तो क्या, प्रकृति को भी दिव्य बना सकते हो। व्यक्ति को दिव्य बनाने से प्रकृति के ऊपर स्वत: ही प्रभाव पड़ता जायेगा। पहले अपने में देखो कि सदा दिव्य बुद्धि इमर्ज रूप में है? इतनी ताकत है जो प्रकृति को भी परिवर्तन कर दो। यह परमात्म-वरदान है। कोई महात्मा या धर्मात्मा का वरदान नहीं है। तो जैसे बाप सर्वशक्तिवान है, तो वरदान भी सर्वशक्तिवान है ना। तो जब भी कोई कार्य करते हो, पहले चेक करो कि दिव्य बुद्धि के वरदान द्वारा कार्य कर रहे हैं या साधारण बुद्धि से कार्य कर रहे हैं? आपकी दिव्यता का प्रभाव विश्व को दिव्य बना देता है। यही आपका ऑक्यूपेशन है ना। इन्जीनियर हूँ, डॉक्टर हूँ, क्लर्क हूँ, फलाना हूँ...-यह ऑक्यूपेशन तो शरीर निर्वाह के अर्थ है। लेकिन वास्तविक ऑक्यूपेशन है-विश्व को परिवर्तन करना। ऐसे समझ कर कार्य करते हो?

अगर वरदान को कार्य में लगाते हो तो वरदान की प्राप्ति सदा सहज अनुभव करायेगी। वरदान में मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो यह दिव्य बुद्धि वरदान है। 63 जन्म मेहनत बहुत कर ली। अभी मेहनत नहीं, सहज। ब्राह्मण जीवन में भी अगर मेहनत करनी पड़ती, युद्ध करनी पड़ती-तो मौज कब मनायेंगे? सतयुग में तो पता ही नहीं होगा कि मौज भी मना रहे हैं। वहाँ कंट्रास्ट नहीं होगा। अभी तो कंट्रास्ट है-मेहनत क्या है, मौज क्या है? तो मौज अभी है, सतयुग में कॉमन बात होगी। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

परिवर्तन शक्ति द्वारा व्यर्थ को समर्थ बनाना ही होली हंस बनना है

सदा अपने को होली हंस समझते हो? होली हंस का कर्तव्य क्या है? व्यर्थ और समर्थ को परखना। वो तो कंकड़ और रत्न को अलग करता लेकिन आप होली हंस समर्थ को धारण करते हो, व्यर्थ को समाप्त करते हो। तो समर्थ और व्यर्थ, इसको परखना और परिवर्तन करना-यह है होली हंस का कर्तव्य। सारे दिन में व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ सम्बन्ध-सम्पर्क जो भी होता है, उस व्यर्थ को समाप्त करना-यह है होली हंस। कोई कितना भी व्यर्थ बोले लेकिन आप व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन कर दो। व्यर्थ को अपनी बुद्धि में स्वीकार नहीं करो। अगर एक भी व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म स्वीकार किया तो एक व्यर्थ अनेक व्यर्थ को जन्म देगा। एक व्यर्थ बोल भी स्पर्श हो गया तो वह अनेक व्यर्थ का अनुभव करायेगा, जिसको आप लोग कहते हो-फीलिंग आ गई। एक व्यर्थ संकल्प की फीलिंग आई तो वह फीलिंग को बढ़ायेगी। इसीलिए व्यर्थ की पैदाइस बहुत फास्ट होती है-चाहे कर्म हो, चाहे क्या भी हो। एक व्यर्थ बोल बोलेंगे तो उसे सिद्ध करने के लिए कितने व्यर्थ बोल बोलने पड़ेंगे! जैसे लोग कहते हैं ना-एक झूठ को सिद्ध करने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ते हैं!

तो व्यर्थ का खाता समाप्त हो जाये और सदा समर्थ का खाता जमा होता रहे। वो व्यर्थ आपको दे लेकिन आप परिवर्तन कर समर्थ धारण करो। इतनी तीव्र परिवर्तन-शक्ति चाहिए। जैसे-आज की साइन्स व्यर्थ को कार्य में लगा कर अच्छा बना देती है, कई वेस्ट चीजों को बेस्ट में परिवर्तन कर लेते हैं। आपकी रचना इतना फास्ट परिवर्तन कर सकती है। जैसे-देखो, खाद होती है ना, तो खाद बुरी चीज है लेकिन पैदा क्या करती है? खाद गन्दी है लेकिन जब फूल पैदा होता है तो खुशबू वाला होता है। या बदबू वाला होता है? तो खाद में परिवर्तन करने की शक्ति है ना। स्वयं कैसी भी है लेकिन पैदा क्या करती है? फल, फूल, सब्जियां....। तो आपकी रचना में कितनी शक्ति है! तो आप में उससे ज्यादा शक्ति है ना। वो गाली दे और आप उसको फूल बनाकर धारण करो। वो गुस्सा करे और आप उसको शान्ति का शीतल जल दो। यह परिवर्तन-शक्ति चाहिए। होली हंस का यही कर्तव्य है। ऐसी जीवन बनी है? या कहेंगे-क्या करें, बोला ही खराब ना, किया ही बहुत खराब बात, है ही बहुत खराब? लेकिन खराब को ही तो अच्छा बनाना है। अच्छे को तो अच्छा नहीं बनाना है। अच्छे आये थे या खराब आये थे? तो बाप ने अच्छा बनाया ना। या कहा कि ये बहुत खराब हैं, इनको अच्छा कैसे बनाऊं? सोचा? बना दिया ना। तो बाप ने आप सभी को बुरे से अच्छा बनाया और आप बुरी बात को अच्छा नहीं बना सकते? बुरे का प्रभाव आपके ऊपर पड़ जाता है। वायुमण्डल ही खराब था ना। यह होली हंस का लक्षण नहीं है।

कैसा भी वातावरण हो, कैसी भी वृत्ति हो, कैसी भी वाणी हो, कैसी भी दृष्टि हो-लेकिन होली हंस सबको होली बना देते हैं। सदा यह पॉवर रहे और सदा ऐसे तीव्रगति के परिवर्तन करने की विधि आ जाये तो क्या बन जायेंगे? फरिश्ता। फरिश्ता किसके प्रभाव में नहीं आता। अपना कार्य किया और वो चला। फरिश्ता कभी किसी विघ्न के वश नहीं होता-न विघ्न के, न व्यक्ति के। तो होली हंस अर्थात् फरिश्ता। सेवा की और न्यारा। तो ऐसी स्थिति सदा है? ऐसे होली हंस बने हो या बन रहे हो? कब तक बनेंगे? कोई टाइम की हद भी है या नहीं? अगले साल भी यही कहेंगे कि-हाँ, बन रहे हैं? नॉलेजफुल बन गये हो ना। तो जब नॉलेज है कि मुझ होली हंस का कर्तव्य क्या है, तो नॉलेज की शक्ति से परिवर्तन नहीं कर सकते हो? दूसरे साल भी यह नहीं कहना कि बन रहे हैं।

तीव्र पुरुषार्थी का लक्ष्य ही होता है-’अब’ और ढीले पुरुषार्थी का लक्ष्य होता है-’कब’। तो तीव्र पुरुषार्थी हो ना। बापदादा तो सदैव हर आत्मा में श्रेष्ठ भावना रखते हैं कि करने वाले ही हैं। इसलिए इस श्रेष्ठ भावना को प्रैक्टिकल में लाना होगा-अब करना ही है, होना ही है। अगर संकल्प में लक्ष्य है कि होना ही है, करना ही है-तो यह संकल्प सफलता अवश्य प्राप्त कराता है। क्योंकि दृढ़ता सफलता की चाबी है। तो सदा सफलता साथ रखना।

ग्रुप नं. 6

साधारणता में महानता का अनुभव कराना ही सेवा का सहज साधन है

सबसे साहूकार से साहूकार कौन है? जो समझते हैं कि सारे चक्र के अन्दर साहूकार से साहूकार हम आत्मा हैं, वो हाथ उठाओ। किसमें साहूकार हो? कितने प्रकार के धन मिले हैं? वो लिस्ट याद रहती है? बहुत खज़ाने मिले हैं! एक दिन में कितनी कमाई करते हो, मालूम है? पद्मों की कमाई करते हो। रहते गांव में हो और पद्मों की कमाई कर रहे हो! देखो, यही परमात्मा पिता की कमाल है जो देखने में साधारण लेकिन हैं सबसे साहूकार में साहूकार! तो अखबार में निकालेंगे-यहाँ सबसे साहूकार में साहूकार बैठे हैं। तो फिर सब आपके पीछे आयेंगे। आजकल आतंकवादी साहूकारों के पीछे पड़ते हैं ना। फिर आपके पीछे पड़ जायेंगे तो क्या करेंगे? उन्हों को भी साहूकार बना देंगे ना। हैं देखो कितने साधारण रूप में, कोई आपको देखकर समझेंगे कि ये सारे विश्व में साहूकार हैं या पद्मों की कमाई करने वाले हैं? लेकिन साधारणता में महानता समाई हुई है। जितने ही साधारण हो उतने ही अन्दर महान हो! तो यह नशा रहता है-बाप ने क्या से क्या बना दिया और क्या-क्या दे दिया! दोनों ही बातें याद रहती हैं ना। तो अखबार में निकालेंगे ना-रिचेस्ट इन दी वर्ल्ड (Richest In The World; विश्व में सबसे अधिक धनवान)।

और देखो, खज़ाना भी ऐसा है जिसको न चोर लूट सकता है, न आग जला सकती है, न पानी डूबो सकता है। ऐसा खज़ाना बाप ने दे दिया। अविनाशी खज़ाना है ना। अविनाशी खज़ाना कोई विनाश कर नहीं सकता। और कितना सहज मिल गया! जितना खज़ाना है उसके अन्तर में मेहनत की है कुछ? त्याग किया या भाग्य मिला? त्याग भी किया तो बुराई का किया ना। बुराई छोड़ना भी कोई छोड़ना हुआ क्या? दुनिया कहती है-त्याग किया और आप कहते हो-भाग्य मिला है। साहूकार को साहूकार बनाना बड़ी बात नहीं हुई ना। गरीब को साहूकार बनाना-यह है कमाल। जो आजकल के विनाशी धन के साहूकार हैं उनको बाप साहूकार नहीं बनाता। उनका भाग्य ही नहीं है। भाग्य है ही गरीबों का। कभी आपका नाम आया है ‘हू इज हू’ (Who Is Who; नामीग्रामी व्यक्तियों की लिस्ट) में? औरों का आता है ना। और बाप की डिक्शनरी में, ‘हू इज हू’ में आपका नाम है। भगवान का बुक ही न्यारा है। तो इतनी खुशी है? धरती और आकाश को माप लो, उससे भी ज्यादा खुशी है ना। बेअन्त है ना। आकाश और धरती तो हद हो जायेगी ना। आपकी उससे भी बेहद है। बेहद के मालिक बन गये हो ना। जब बाप भी बेहद का बाप है, तो प्राप्ति भी बेहद की करा-येगा ना। तो क्या याद रहता है? बेहद का बाप मिला, बेहद का राज्य-भाग्य मिला, बेहद का खज़ाना मिला। है नशा? हर कर्म में यह रूहानी नशा अनुभव होना चाहिए-स्वयं को भी और औरों को भी। चाहे वे समझें, नहीं समझें, इतना तो कहेंगे ना कि ये खुशी-मौज में रहते हैं। यह तो अनुभव करा सकते हो ना। जैसे-मधुबन में आते तो अन्जान भी हैं, लेकिन क्या अनुभव करते हैं? यहाँ का वातावरण और यहाँ की आत्माए खुश रहने वाली हैं, वायुमण्डल में खुशी है-यह तो अनुभव करते हैं ना। तो ऐसे आप सबके सम्बन्ध-सम्पर्क में अनुभव करें कि ये अलौकिक आत्माए हैं, भरपूर आत्माए हैं। ऐसा अनुभव करते हैं। चाहे देह-अभिमान के कारण कहें नहीं, लेकिन अन्दर तो जानते हैं ना। क्योंकि अगर बाहर से आपको कहें, तो खुद को भी बनना पड़े ना। इसीलिए कहेंगे नहीं लेकिन अन्दर में महसूस जरूर होगा। तो ऐसे श्रेष्ठ हो ना। इसलिए गायन है कि अगर अतीन्द्रिय सुख पूछना हो तो....। आपसे पूछें?

देखो, भगवान की पसन्दगी क्या है? जिसको कोई पसन्द नहीं करते उसको बाप पसन्द करते हैं! बाप की नज़र किसके ऊपर गई? आप लोगों के ऊपर। इतने नामीग्रामी लोगों पर नज़र नहीं गई। कहते हैं ना-तुम्हारी गत-मत तुम ही जानो, और कोई नहीं जानता। तो नशा है कि परमात्मा ने हमको पसन्द किया है। डबल विदेशी डबल नशे में रहते हैं। भारतवासियों को तो भारत में ही आकर चुना। लेकिन डबल विदेशियों को कहाँ से चुना? इतना दूर से बाप ने हमको चुना। तो डबल नशा है ना। जैसे आत्मा और शरीर साथ-साथ हैं और सदा साथ हैं, ऐसे यह नशा आत्मा के सदा साथ है। तो ऐसे नशे में रहने वाली श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ आत्माए! सदा खुशी में नाचने वाले। कोई प्राप्ति होती है तो खुशी में नाचते हैं। आपको तो हर कदम में प्राप्ति ही प्राप्ति है। इतनी प्राप्ति है जो दिल कहता है कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु परमात्म-खज़ाने में। इस समय का यही गीत है-ब्राह्मणों के खज़ानों में सर्व प्राप्तियाँ हैं। अच्छा!